भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हक़ / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 18:02, 7 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नरेश अग्रवाल |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> प्रकृति की सुं…)
प्रकृति की सुंदरता पर किसी का हक़ नहीं था
वो आज़ाद थी, इसलिए सुंदर थी
एक ख़ूबसूरत चट्टान को तोडक़र
दो नहीं बनाया जा सकता
ना ही एक बकरी के जिस्म को दो ।
इस धूप को कोई नहीं रोक सकता था
धीरे-धीरे यह छा जाती थी चारों तरफ़
इसलिए इसके भी दो हिस्से नहीं हो सकते
और जो हिस्से सुंदर नहीं थे
वे लड़ाईयों के लिए पहले ही छोड़ दिए गए थे ।