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गेह / गोबिन्द प्रसाद

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इस निजन्धरी मकान के
किसी कोने में
भूल गया बचा कर
- थोड़ा सा उजाला

कई छोटी छोटी उम्र
जीते हैं; भटक कर
याद में नहीं उतरता;वह उजाला

लौट आते हैं स्वप्न में जागकर
कभी देह के उस द्वार पर
जहाँ से देख भर लेते हैं; वह उजाला

उजाला जैसे
समुद्र में चट्टा नवत्‍ कोई चेहरा
काँपती लहरियों पर
निष्कम्प लौ सा
काल के अश्व पर सवार
दिशाओं मे छेड़ जाता भोर का अभियान

उजाला-
जिस में कौंधती है तड़ित बन
कविता की कोई पंक्ति
लड़ते रह्ते हैं हम
जिस की बिना पर जीवन से तमाम उम्र