भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
उसका आना / अरुण देव
Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 17 सितम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण देव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> वह मिलने कैसे आती बा…)
वह मिलने कैसे आती
बारिश हो रही थी
कीचड़ फैला था
घर और बाहर के कीचड़ में
कब से धंसी थी वह
बहुत दिनों से उमड़ –घुमड़ रहे थे बादल
रात भर बरसा था मेघ
रात भर भीगता रहा उसका मन
भीग कर फैल गयी थी स्याही उस इबारत की
जो खनकती थी जंजीरों की तरह
रात का पैरहन स्याह और भारी हो गया था
चौखट के उस पार गिरी थी बिजली
शायद उस पर
गहरी नदी
उफनता पानी
उस पार मुन्तजिर वह भीगता हुआ उसकी चाह में
डरती है अपने कदमों के निशान से
निशान तो निशान हैं
बार बार उभर आते हैं
हर गली, हर नगर में
समय-कुसमय
इन पैरों पर पैर रखती चली आती है क्रूरता अपनों की.