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क़ब्रें / गुलज़ार
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द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:36, 23 सितम्बर 2010 का अवतरण
कैसे चुपचाप मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
जिस्म की ठंडी सी
तारीक सियाह कब्र के अंदर!
न किसी सांस की आवाज़
न सिसकी कोई
न कोई आह, न जुम्बिश
न ही आहट कोई
ऐसे चुपचाप ही मर जाते हैं कुछ लोग यहाँ
उनको दफ़नाने की ज़हमत भी उठानी नहीं पड़ती !