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दंशित मैं / अनिरुद्ध नीरव

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दरपनी ताल को
       मछेरूँ
जाल लिए
अपने ही बिम्ब को
        तरेरूँ

हिरनाते
पलों की कतार
गंधे
कस्तूरिया बयार

किसको
किस कोण से
       अहेरूँ

बीन और
       ज़हरमोहरे
नागलोक में तो
       उतरे नहीं खरे

दंशित मैं
किस तरह
       सँपेरूँ ।