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अधबनी कविताएँ / मनीष मिश्र
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अब नहीं है हमारे पास समय
शब्दों से खेलने का।
हमें बोलने हैं छोटे और सरल शब्द
और
तय करनी है अपनी भाषा
एक हथियार की तरह।
हमें संवर्धित करने हैं शब्द
अपनी रोजी-रोटी की तरह
हमें लगातार गुजरना है
संवाद स्थापत्य की प्रक्रियाओं से
और बचाना है शब्दों को खारिज होने से।