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पै‘लापै‘ल (1) / सत्यप्रकाश जोशी

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पूंन पालकी में बैठ्या
मुरली रा झीणां सुर
म्हारा नांव नै
कूंट कूंट में गावै
कण कण रा कानां में गुंजावै,
जमना री लै‘रां म्हारां नांव नै कळकळावै,
ठेट समदर री छोळां लग पुगावै,
रूंखां रै पांनड़ां रा होठ
म्हारा नांव नै गुणगुणावै
कोयल नै सुणावै।

पण पै‘लापै‘ल
सुगणी जसोदा रा जाया !

थूं म्हारौ नांव पूछियौ ;
लजवंती लाज
म्हनैं दुलेवड़ी कर न्हाखी।
दो आखरां रौ भौळो-ढालौ नांव
म्हारै सूखतै कंठां रै
पोयण में भंवरा ज्यूं अटकग्यौ,
म्हारै होठां री लिछमण-रेखा में
बैण जांनकी दाझण लागी।
थूं म्हनैं घणी-घणी बातां पूछी,
पण सुगणी जसोदा रा जाया !
म्हारै सुरंगै गालां रै कसूंमल मै‘लां सूं
लजवंती रांणी
नीं उतरी सो नीं उतरी।