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गुमेजण कविता / रामस्वरूप किसान
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म्हारै में विधाता
न्यारी ई कर राखी है
कै कमरै में बैठ‘र
कविता नीं कर सकूं
म्हैं तो
सूड़ काटतो, अर लावणी करतौ
ई कविता कर सकूं
म्हारै मांय सूं तो
हाड़ फोड़‘र पीसनै रै बंट
निकळै कविता
लोग पूछै-
खेती करतै थकां
कविता सारू टेम
किंयां उबारौ ?
म्हैं केवूं-
ऊबरयोड़ै बासी बगत नै
दाय नीं करै
म्हारी गुमेजण कविता
आ तो उण तातै
बगत नै ई खाणो चावै
जकै नै म्हारौ
किरसी-कर्म खावै।