अंतस-पतंगें / पुष्पेन्द्र फाल्गुन
परत-दर-परत
उघारता हूँ अंतस
उधेड़बुन के हर अंतराल पर
फुर्र से उड़ पड़ती है एक पतंग
अवकाश के बेरंग आकाश में.
पतंगों के
धाराप्रवाह उड़ानों से उत्साहित
टटोलता हूँ अपना मर्म मानस
पाता हूँ वहाँ अटकी पड़ी असंख्य पतंगें
कहीं गुच्छ-गुच्छ
कहीं इक्का-दुक्का.
अंतस की काई में
उँगलियाँ उजास का जरिया बनती हैं
अंगुल भर उजास
भड़भड़ा देता है अस्तित्व
पतंगें
घोषित कर देती हैं बगावत
स्पर्श ने
पिघला दी समय की बर्फ
जगा दी मुक्ति की अपरिहार्य आकांक्षा.
पतंगों की समवेत अभिलाषा
अंतस में पैदा करती है प्रसव-वेदना
एक-एक कर
कोख से उन्मुक्त हो पतंगें
नापने लगती हैं आसमान
लाख प्रयास भी
नहीं काट पाती है
किसी भी पतंग की गर्भनाल.
गर्भनाल ही बनती जाती है डोर
अंतस रूपांतरित होने लगता है
एक महाकाय चकरी में
जिसमें लिपटी डोर
साहूकारी ब्याज सी अनंतता का अभिशाप लिए
गूंथती रहती है
देह-संस्कार.
हवाबद्ध हर पतंग के
निजी इतिहास और संस्कृति की पनाहगाह
अंतस
सौन्दर्यबोध की उत्कंठा में उदास
तलाश रही है वह कैनवास
कि जिसके आगोश में
पतंगें
तय कर सकें अपनी मंजिल
उन्मुक्त और निर्भय