अंतिम संस्कार / नरेश अग्रवाल
मैं गुजर रहा था
अपने चिरपरिचित मैदान से
एकाएक चीख सुनी
जो मेरे सबसे प्रिय पेड़ की थी
कुछ लोग खड़े थे
बड़ी-बड़ी कुल्हाडिय़ॉं लिये
वे काट चुके थे इसके हाथ
अब पॉंव भी काटने वाले थे
मैंने इशारे से उन्हें रोकना चाहा
वे रुके नहीं अपना काम करते रहे
मैंने फिर कहा माफ करो इसे
अगली बार यह जरुर फल देगा
इसमें पत्ते भी आयेंगे और फूल भी
पथिक भी आराम करेंगे
चिडिय़ॉं भी घोंसले बनायेंगी
नहीं वे माने और न ही रुके
केवल बुदबुदाते रहे-
मरे हुए का शोक करता था
कौन है यह आदमी?
क्या इसे अपना हिस्सा चाहिए?
आगे मैं कुछ बोलता
वे पहले ही बोल पड़े-
हम लोग लाश उठा रहे हैं
अंतिम संस्कार भी करा देंगे
तुम राख ले जाना
वे बहुत खुश थे
जोर-जोर से हॅंस रहे थे
जड़ें हिल रही थीं उनकी हॅंसी से,
कुल्हाडिय़ॉं चमक रही थीं
और उखडऩे लगे थे
धरती से मेरे पॉंव ।