अंधार-पख / नन्द भारद्वाज
सुनसांन अंधारै में 
डूब्योड़ा दरखत 
     धोरां रा जूथ 
ऊभा है मून 
निरजण उजाड़ में 
आभै री गिरद में 
आंख्यां झपकावतौ 
चितबगनौ धू-तारौ 
ऊभौ है जांणै कित्ता ई जुगां सूं 
सागण ठौड़ 
भाटै री जींवत पूतळी ज्यूं 
                 थिर ! 
थाक्योड़ा मारग 
सूता है खूंटी तांण - 
सांसां फोरती रैवै पसवाड़ा 
आखी रात, 
अर किणी अणचेत पुळ में 
अणबूझ धूंधळकौ भख लेवै 
        जीवण आसार, 
अंधारै में खप जावै हरेक अणुंताई 
अंधार-पख री अदीठ पुड़तां में।  
जद कदेई 
डरावणै जंजाळ री अेवज 
खुल जावै म्हारी आंख 
       अेकाअेक मंझळ रात में 
औई दीठाव पसर जावै म्हारी दीठ में 
औई चिरथिर सरणाटौ 
भरीज्योड़ौ लाधै च्यारूं-कूंट
         धोरा डाकतौ।     
म्हैं नीसर जावूं 
गांव री गळियां पार 
उण सूक्योड़ै कूवै कांनी 
जिणनै अब कोई कोनी बतळावै 
नीं गिनारै उणरौ आपौ 
सारैकर नीसरतां, 
पण म्हनै ओजूं लगाव है 
उण त्याज्योड़ै कूवै सूं 
उत्तौ ई गैरौ अर गाढौ - 
जिणरी भींतां अर सारण में 
सुणीजै म्हारै बाळपणै रा रम्मत रा मीठा बोल - 
म्हैं घंटां लग बैठौ रैवूं 
इणरा फूट्योड़ा खेळी-कोठां माथै 
अर पीवतौ रैवूं इणरौ दरद मांवौ-मांय - 
कठै गया आं सूनै घरां रा रैवासी 
क्यूं रातूं-रात नीसरग्या आपरौ जीव लेय परबारै  
क्यूं अणलेखै ऊजड़ग्यौ आधौ गांव? 
- म्हैं पूछतौ रैवंू सूनै कूवै रै घेरै में मूंडौ घाल 
अर पड़ूतर में 
घणी जेज गूंजता रैवै 
तळ री अंधारी गैराई में म्हारा ई गुमसुम बोल
म्हैं भूल जावूं खुद रौ आपौ - 
          ढळती रात रौ बोध।  
अर इणी मनगत में 
जद निजर पड़ जावै 
सोपै में गाफल गांव माथै, 
म्हनै लागै के औ गांव 
ओजूं बिना किणी दोराई पिछतावै 
कळीज्यां सूतौ है गुमसुम 
दुनिया री न्यारी रंगत 
अर जीवण री रफत सूं अजांण 
साव परबारै पळतौ 
तारां-छाई रात रै आभै में 
अेक छिटक्योड़ै काळ-खंड रै उनमान 
अन्याव अर अंधारै री अनीताई नै 
सैवतौ आपरै धीजै रै आपांण   
आपरै अणभव बगत री निमळाई नै  
राखतौ हीयै री ओट वौ सांभ लेवै
अंधार-पख में जीवण रौ जोखम 
अर थ्यावस राखै, 
नीं धारै किणी सूं आमनौ  
नीं ऊंची करै आवाज 
अेकल या अेकठ रूप में। 	
खुद री जात्रा रै आंटै 
जद कदेई फिरतौ-घिरतौ आय पूगूं 
पाछौ इणी गुवाड़ 
म्हैं भूल जावूं खुद रै घावां री पीड़ 
ळदां पूगती पीड़ री हालत देखतां 
गैळीजण लागूं 
इण गांव री निरमळ गोद में 
अर घिर जावूं उणीं भांत 
फेरूं किणीं ऊजड़ जंजाळ में - 
हौळै-हौैळै पगां हेठै सूं 
सिरकण जागै काठी धरती 
ताळवै चिप जावै म्हारी जुबान 
भागण री कोसीस में 
गिरियां तांई कळीज जावै पग 
बेकळू रेत में 
अंधारै में केई अणजांण उणियारा 
हाथां में लियां आदम-जुग रा सस्तर 
म्हारै नैड़ा आवण लागै, 
खारी मंींट गुडायां म्हारी मींट में 
अर देखतां-देखतां 
स्सारकर नीसर जावै आगै 
म्हारा कानां में 
कीं धमकी भरिया सबद उगेरता 
वै अलोप व्हे जावै 
अंधारी गळियां में  अेकाअेक
रात रै तीजै पौर 
किणी डराऊ जंजाळ बिच्चै 
खुल जावै म्हारी आंख आभाचूक 
अर हाक-बाक म्हैं भाळूं च्यारूंमेर - 
अंधारै में नीमड़ै री हालती डाळ्यां 
अणमणी टोखियां झूंपड़ां री, 
पण हौळै-हौळै बीखर जावै 
सगळौ आळ-जंजाळ
अर आभै में खण-खण हंसता रैवै तारा।  
म्हैं सोधतौ रैवूं गळियां आखी रात 
घंटा लर्ग बैठौ रैवूं आमण-दमूणौ 
वां सूनी भींतां माथै 
सूनी गळियां में सांगै री बाट उडीकतौ। 
अर इणी बिचाळै 
अेक नुंवै दिन री उम्मेद संयोयां काळजै 
फेरूं पाछी चालू व्है घांणी - 
भाख फाटण सूं पैली 
खाडा पूरण खातर उठ जावै औ गांव 
घूमण लागै घरां में घट्टी रौ पाट 
चूल्हां सूं उठण लागै धूंवौ 
अड़ो-अड़ ऊदर जावै मारग
घरां सूं जीव-जिनावर 
          मानवी, 
चरणोयां री खोज में 
चकरी चढिया घूमता रैवै बारूं-मास 
इणी लूखै उजाड़ में, 
अर सिंझ्या घिरण रै साथै ई 
आभै में अलोप व्ह जावै 
सगळी उम्मीदां। 
फेरूं वौई उजाड़ 
वौई घिरतौ अंधारौ 
चौफेर सालरतौ सरणाटौ बेथाग 
आठूं पौर आंख्यां आगै 
लेवड़ां रौ ढेर 
नागी - तेड़ां खायोड़ी भींतां 
अर जूनी बाड़ रै च्यारूंमेर 
जमती बेकळू री पुड़तां 
सेवट कायौ कर 
होवणहार रै हाथां सूंप देवै आदमी नै - 
ओजूं लग म्हारै कानां में गूंजै 
उण आंगणै रै अध-बिचाळै 
डुसक्यां भरती    बैठी 
जमना री घायल आवाज 
          (हीयै रौ हाहाकार)
‘‘इण गांव में 
नीं खावण नै जैर है
नंी म्हारी खैर, 
पछै किणरै भरोसै देवूं जलम 
इण पापी पेट में पळतै 
नुंवै दुरभाग नै।’’ 
खुद री आबरू 
अर लोक-लाज री छोड गिनार 
बधती उम्मीद नै सूनी आंख्यां में उतार 
वा उण छेली रात घिरतै अंधारै में 
फेरूं अेकर हळवी-सी मुळकी 
अर हौळै-हौळै 
अेक अकथ उदासी में डूबगी
नीं बापरी ओप पाछी उणरै उणियारै।  
कांई व्हैला आगोतर 
इण जंामण अर नुंवै जीव रौ? 
इणी संताप अर चिन्ता में 
सोधण सारू नीसरग्यौ अेक रात 
इणरौ खांवद 
कोसां पसर्योड़ै सूनै उजाड़ में 
अर उळझतौ रह्यौ पगो-पग 
गांव-दर-गांव, सैर-दर-सैर 
गळियां अर सड़कां री गैल 
नित-नुंवी अबखायां-अळूझाड़ में। 
जांणतां-बूझतां सातर 
अणजांण बण्योड़ौ देखतौ रह्यौ 
इण अंधार-पख री हरेक अनीताई 
अर मांवौ-मांय 
करतौ रह्यौ खुद नै त्यार 
उण छेलै संग्राम सारू। 
सुभाविक है के 
अजूबौ लागै अबार 
इण गांव-गुवाड़ नै म्हारा सगळा कारज 
हाल भरोसौ कोनी आवै 
म्हारी जुबांन माथै, 
अर इणी दरम्यांन 
कीं मतळबी मौकैबाज 
म्हारै खिलाफ 
गळियां में करता रैवै गांगरा 
पण सेवट फंसैला 
खुद रा ई बुणियोड़ा जाळां में।  
कोनी अकारथ जावै वांरौ नैठाव 
अनीतायां नै सांम्ही छाती 
झेलण री वांरी अपूरब खिमता 
अेक लूंठी इतिहासू 
अर मांयली जरूत पांण 
जुड़ जावैला अै रेत-कण आपूं-आप 
तद तांई जूंझतां रैवणौ है
इणी उजाड़ में 
अंधार-पख रा 
तमाम अजूबा मकड़ी-जाळां सूं। 
अक्टूबर, ’73
 
	
	

