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अकारथ / महेन्द्र भटनागर

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दिन रात भटका हर जगह
सुख-स्वर्ग का संसार पाने के लिए !

कलिका खिली या अधखिली
झूमी मधुप को जब रिझाने के लिए !

सुनसान में तरसा किया
तन-गंध रस-उपहार पाने के लिए !

क्या-क्या न जीवन में किया
कुछ पल तुम्हारा प्यार पाने के लिए !

डूबा व उतराया सतत
विश्वास का आधार पाने के लिए !

रख ज़िन्दगी को दाँव पर
खेला किया, बस हार जाने के लिए !