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अगरबत्ती / इला प्रसाद
Kavita Kosh से
अंदर की आँच
अधिक तो नहीं थी
बस एक जलती हुई अगरबत्ती थी
जो धीमे-धीमें सुलगती रही
अलक्षित
और एक दुनिया अंदर ही अंदर
जल कर राख हो गयी
अपने ही अंदर की आग से
अगरबत्ती की राख से
फिर से उठी मैं
अगरबत्ती बन कर
और फिर से तपने लगी