भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अचंभौ / दुष्यन्त जोशी
Kavita Kosh से
अचंभै वाळी बात सुण'र भी
अचंभौ नीं करै
म्हूं देख्या
आँख्यां वाळा आंधा
अर जीभ हुवतां थकां
गूंगा मिनख नै
मिनख
क्यूं नीं देखै
अर
किंयां रै'वै मून
इत्ती भीड़ में ?