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अजनबी मनुष्य / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
क्यों मेरे लिये
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में जीता था
जो मेरी
साँसों में बसते थे
यह हादसा कैसे हुआ
कि मैं उनसे आँखें चुराने लगा
मैं उनकी मुसीबतें भुलाने लगा
जिन्हें कितनी बार
मैंने उनके साथ
अपने जिस्म पर झेला
वह तल्ख़ दर्द
कितने हमारे आँसू साँझे
हमने एक दूसरे के पोरों से पोंछे
एक दूसरे की राहों के काँटे
कितनी बार हमने
अपनी पलकों से समेटे
पता नहीं
वक़्त अचानक
क्या हादसा कर गया
कि मेरे भीतर
जो इन सब का अपना था
वह कैसे अचानक
धीरे-धीरे मर गया
उसके स्थान पर
मेरे भीतर
यह अजनबी-सा मनुष्य
कौन
प्रवेश कर गया
कि मेरे लिए
वे लोग ही अजनबी बन गए
मैं जिनकी साँसों में बसता था
जो मेरी साँसों में जीते थे ।
मूल पंजाबी से हिंदी में रूपांतर : स्वयं कवि द्वारा