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अनंत / उपेन्द्र कुमार
Kavita Kosh से
उड़ रहे हैं अनेक पक्षी
अजान दिशाओं की ओर
और उन्हीं के पीछे
मैं भी वैसे ही
अनन्त में उड़ रहा हूँ।
कहाँ है गंतव्य
क्या खोजने जा रहे हैं।
बिना रुके
फिर लौट आते हैं
अपने नीडों में
और मैं
वहीं रहता हूँ अनन्त में भटकता।
वे अपने पंखों से उड़ते हैं।
थकते हैं।
मैं बिना थके उड़ता हूँ।
प्रयोजनहीन।
बस मैं
वहीं हूँ जहाँ सोच-विचार नहीं
केवल अनन्त है।