भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अनसुना / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
बहुत कुछ अनसुना-अनजाना रह जाता है हमसे
जिसकी हम परवाह नहीं करते
जबकि वह गूँजता रहता है हमारे चारों ओर
जितनी उसकी गूँज बढ़ती जाती है, उतना हमारा बहरापन