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अन्दर का कर्फ़्यू / उर्मिलेश
Kavita Kosh से
बाहर से ज़्यादा डरावना
अन्दर का कर्फ़्यू होता है I
ख़तरे का सायरन बजे तो
सावधान हम हो सकते हैं,
कमरे की बत्तियाँ जलाकर
जग सकते हैं, सो सकते हैं;
लेकिन कैंसर के फोड़े-सा
फूट रहा है जो अपने अन्दर,
उस खतरे के मल-मवाद को
कौन भला आकर धोता है I
मन के सन्नाटों का मतलब
भाषा का जड़ हो जाना है,
अथवा ठहरी झीलों, अंधी
बाबड़ियों में खो जाना है;
दिनचर्या पर लिपटे भूतों
प्रेतों से हम लड़ सकते हैं,
लेकिन उसका क्या हो जो इस
मन के खंडहर में सोता है I
जेहनों में जब बस जाती हैं
चिन्ताओं की निलज चुड़ैलें,
दुविधा यही हुआ करती है
कितना सिकुड़ें कितना फैलें;
जिस घर की छत होती, उसकी
हमें क़ैद भी अच्छी लगती,
पर जिस घर में दीवारें हों
उसका दर्द कौन ढोता है I