भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपेक्षा / सुधा ओम ढींगरा
Kavita Kosh से
पूनी की तरह
गृहस्थी की तक़ली पर
सुती गई..
अपेक्षाओं का सूत
गदरा ही रहा ...
आकाँक्षाओं के
महीन सूत के लिए
ना जाने
कितनी बार और....
मेरी भावनाएँ
तक़ली पर
कती जाती रहेंगी...
मन को अटेरनी बना
इच्छायों को कस दिया...
गृहस्थी का खेस
फिर भी पूरा ना हुआ...