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आईना / रामदरश मिश्र
Kavita Kosh से
लोगों के बीच जाने से पहले
उसने अपने चेहरे पर
एक सुगंधित मुस्कान पहन ली थी
आँखों में भर ली थी जन-प्रेम की तरलता
सोचा-
देखूँ तो कैसा लगता हूँ
वह एकाएक चीख उठा
आईने के सामने होते ही
चेहरे के भीतर का चेहरा उभर आया था
आँखों में खून की लाली दहकने लगी थी
उसने डाँट कर कहा-
”तू कैसा आईना है रे
यह क्या दिखा रहा है?“
आईना बोला-
”मैं वही दिखाता हूँ जो असल है
वह कितना भी छिपा हुआ क्यों न हो
मैं कवि का आईना हूँ न“।
-2.11.2014