भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आगळ / नीरज दइया
Kavita Kosh से
कीं कैवणो चावतो हो म्हैं।
कीं कैवणो चावतो हो थूं।
कीं कोनी कैयो म्हैं।
कीं कोनी कैयो थूं।
म्हैं सोच्यो- थूं कीं कैवैला....
कांई सोच्यो थूं?
म्हैं कियां जाणूं....?
है तो आ जूनी कथा
पण आगळ खोलै कुण....?