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आदमी / प्रयाग शुक्ल
Kavita Kosh से
आकाश, आकाश है,
मित्र है ।
उसका अदृश्य है
एक चित्र ।
चिड़िया पार करती है उसे
जाने कितनी दूर तक —
देर तक !
सुख का है अन्त, दुख का अन्त नहीं
रहता ही है ताक में हमेशा,
रहता ज़्यादा देर !
जब तक भिगो न दे आँखें
मुस्कान चलती नहीं लम्बी
आती विलम्ब से
हँसी अन्तराल से ।
आता दुख तेज़ी से
किसी ख़ामोशी से ।
सुख का है अन्त, दुख का अन्त नहीं ।
सोचता है सबसे पिछली क़तार
का आदमी
सारी अगली क़तारों के बारे में ।
कहता नहीं,
सोचता है —
हम सब हो सकते थे
एक ही क़तार में —
बस आदमी !
इन्तज़ार करते हैं आदमी
कोई पढ़े उनको !
लिखते हैं क़िताबें आदमी ।
करती हैं क़िताबें इन्तज़ार
पढ़े जाने का ।