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आम / हरिओम राजोरिया
Kavita Kosh से
असमय हवा के थपेड़ों से
झड़ गये आम
अपने बोझ से नहीं
झड़े समय की मार से
बेमौसम अप्रैल की हवाओं ने
एक घर भर दिया कच्चे आमों से
आम न हों जैसे
भगदड़ में मारे गये
शव हों मासूम बच्चों के
जो आँखों ने सँजोये थे
झड़ गये वे स्वप्न
गयी कई दोपहरों की रखवाली
गयी चमक बूढ़ी आँखों की
इन्तजार गया कई महीनों का
पहले झड़े आम
फिर झर-झर झरी
आँखों से पानी की धार
पहली गिरी अमिया के साथ
चीखी एक औरत
फिर ताबड़तोड़
सब दिशाओं को लपके
ऐसे झड़े आम
कि झड़ते ही गये
झड़ते ही गये।