आवर्त्त पर्व / अमरेंद्र
मिला वनवास पांडव को त्रियोदश वर्ष का है,
नहीं कुछ छोर दिखता कौरवों के हर्ष का है;
नगाड़े, ढोल, तुरही से दिशाएँ गूँजती हैं,
नदी, पर्वत, गगन, भूमि, हवाएँ गूँजती हैं।
लहरता ध्वज वृहद हरिप्रस्थ पर कुरुवंश का है,
हुआ है अब सुयोधन का। उसी के अंश का है।
भले ही लग रहा हरिप्रस्थ है श्रीहीन लेकिन,
विभव, वैभव, प्रभा, बल से बहुत ही दीन लेकिन;
सुयोधन के भवन में रास, रस, संगीत-उत्सव,
शिशिर में खिल रहे कचनार, चम्पा, बौर, कैरव;
उधर वसुषेन अपने कक्ष में है बहुत चिन्तित,
नहीं मन में कहीं सुख-चैन के हैं चिह्न किंचित।
नहीं बस प्रश्न, शंकाएँ कई उठतीं हृदय में,
छुपी है हार कितनी अब सुयोधन की विजय में?
अभी कुछ सोचता आगे कि गूँजी थी गिरा यह,
" तुम्हारा सोच, जैसे, हो लड़कपन का निरा यह।
" सुनो वसुषेन, जो भी हो गया, क्या प्रीतिकर है?
मुझे तो यह नदी में लग रहा उठता भँवर है।
सँभाले भी सँभलना अब कठिन होगा तरी को,
नहीं तुम रोक पाए जब सुयोधन मत्सरी को।
" किया आदेश था उसने दुशासन को अहितकर,
सिंहासन के सभी नय-धर्म को पल में ही चित कर;
कभी क्या क्षम्य होगा, जो किया है घोर पातक?
मनुजता, नीति, नय पर वज्र-सा यह अस्त्रा घातक।
" मुझे तो दुख इसी का, तुम वहाँ पर थे उपस्थित,
निरख कर क्यों नहीं तुम हो गये थे कर्ण मूर्छित!
रहे कैसे वहाँ पर तुम बहुत निष्कंप, अविचल,
उठी थी क्यों नहीं मन में तुम्हारे शांत हलचल?
" बहुत ही क्रूर पल था वह कि जैसे मन तुम्हारा,
यही तुमसे बताने आ गया हूँ फिर दोबारा। "
नहीं विचलित हुआ कुछ कर्ण सुन कर यह सभी कुछ,
उसे तो लग रहा है और कहने को अभी कुछ।
हुआ स्वर मौन, तो वसुषेन ने मन को उतारा,
उमड़ आया हृदय ही बंधनों की तोड़ काराµ
" कहा तुमने अभी जो वह तुम्हीं से सुन चुका हूँ,
नहीं उत्तर दिया। कुछ सोच कर ही तो रुका हूँ।
" न जाने कब खुले किसकी कथा, चुप ही रहा हूँ,
जहाँ तक सह सका हूँ पीरपर्वत को सहा हूँ;
किसी का जी दुखे न, चाहता था, उत्तरों से,
बहुत बचता रहा कुछ सोच कर ही मैं खरों से।
" कहा क्या-क्या नहीं, सब बोलना अब तो कठिन है,
जहाँ तक याद करता हूँ समय को, वह मलिन है।
बिछी है आग भीतर, राख की ऊपर परत है,
उसी दुख में अभी तक यह हृदय डूबा निरत है।
" कभी जब छेड़ते हो, जाग जाती पीर मन की,
कहीं सीमा दिखाती फिर नहीं फैले गगन की,
मुदा वह सब कहूँगा जो कहा न आज तक है,
सुनोगे शांत होकर, मुझको इसमें घोर शक है।
" अगर पूछूँ, जुए में कौन दोषी, क्या कहोगे?
पता है यह, युधिष्ठिर नाम पर तुम चुप रहोगे?
किसी ने कह दिया तो क्या कुएँ में डूब जाएँ,
सभी धन-धाम, भाई और दारा को गवाएँ?
" जुए में हार जाए स्वयं, उसे अधिकार क्या है?
भला ऐसे मनुज से लोक का उद्धार क्या है?
यही तो प्रातिकामी से कहा था द्रोपदी ने,
लगाया प्रश्न था संकट में आकर सतपदी ने।
" मिला उत्तर कहाँ था भीष्म या फिर द्रोण ही से,
भला होना ही क्या था, भीम-अर्जुन दाँत पीसे।
कहाँ कुछ बोल पाए थे नकुल, सहदेव, कृप ही,
रहे हरिप्रस्थ के ही क्यों झुकाए शीश नृप ही?
" कहा अतिकर्ण ने जो कुछ, कहाँ उत्तर मिला था?
धरम के राज का तब भी कहाँ आसन हिला था?
कहो फिर कौन न्यायी, कौन धर्मी, कौन जेता?
नये युगधर्म का, तप-पुण्य का सचमुच प्रणेता?
" जहाँ तक बात है, कृष्णा को लाने की सभा में,
तुम्हें क्या ज्ञात, क्या जादू भरा है उस प्रभा में!
उसे देखा स्वयंवर में, नहीं कुछ बोल पाया,
हिले न तीर-तरकश, न धनुष ही डोल पाया।
" लगा क्षण भर यही उस काल में जड़ हो गया हूँ,
थका, हारा, अलस-सा सेज पर मैं सो गया हूँ।
कहाँ तब बेध पाता लक्ष्य को निष्फल हुआ था,
किसी के रूपपिंजर में तड़पता-सा सुआ था।
" उसी कृष्णा की छवि को देखने पहुँचा सुयोधन,
नहीं यह बात अब तो है किसी से दूर-गोपन।
उसे ही देखने में पाँव फिसले थे महल में,
कहाँ थी चेतना जो भेद करता काँच-जल में।
" सभा में जब दुशासन ने उसे ही खींच लाया,
यहाँ भी रूप की छवि ने वही जादू चलाया,
सुयोधन किस तरह कहता भला यह, 'चीर हर लो' ,
इकहरे वस्त्रा में लिपटी हुई का वसन धर लो।
" पड़ी थी दृष्टि उसकी उस समय जब द्रोपदी पर,
बँधी ही रह गई हो नाव जैसे कि नदी पर।
कहाँ कुछ बोल पाया था, सुयोधन ही कहाँ था,
लगा कोई खिलौना काँच का बैठा वहाँ था।
" तुम्हें भी ज्ञात है, यह मन जहाँ होता प्रबल है,
वहाँ क्या इन्द्रियों का एक भी खिलता कमल है?
सभी कुछ सामने होते मुदा होता नहीं कुछ,
जिधर जो चाहता मन है, वहीं पर तो सभी कुछ।
" वहाँ पर जो उपस्थित थे, सभी का हाल वैसा,
कहाँ कुछ बज रहा था कौरवों के गाल जैसा;
दुशासन चीर क्या हरता, शिथिल थीं जब भुजाएँ,
कहाँ से, कौन-सी बातें, तुम्हीं बोलो, उठाएँ!
" वहाँ पर जो हितैषी पांडवों के थे कहूँ क्या,
अजब ही हाल था उस वक्त में उनकी दशा का,
भयावह स्वप्न की माया से उनका मन बँधा था,
नये ही किस्म का जो स्वप्न रह-रह कर उठाता।
" उन्हें यह लग रहा था, कृष्ण आये हैं वसन बन,
त्रियोदश हाथ का पट बन गया हो तीन वामन;
निरीहों के डरे मन की अजब होती ही गति है,
असत को सत्य माने शांति के हित, यह तो अति है।
" यही तो एक पथ था जो उन्हें दुख से उबारे,
सहारा मिल गया भ्रम का बचे हारे बेचारे।
छुपाने के लिए अब कुछ कहे, इसमें रखा क्या,
कहूँगा, तो कहेंगे; कर्ण को इसका पता क्या!
" जहाँ तब बात है मेरी, उसे कहना ज़रूरी,
बिना उसको कहे तो सब कहा समझो अधूरी।
मुझे क्या हो रहा था, तब तुम्हें वह क्या बताएँ,
कहाँ से किस तरह से उसे विगत को ले उठाएँ।
" पड़ी जब दृष्टि कृष्णा पर, पुराने घाव उभरे,
उभर आए, स्वयंवर में सभी वे भाव उभरेµ
कहा कृष्णा ने क्या था, जब उठाया था धनुष को,
कभी मैं भूल ही पाता नहीं हूँ तनिक उसको।
" दुशासन ने उसे जब खींच कर लाया यहाँ था,
तुम्हें मैं क्या बताऊँ, मैं स्वयंवर में वहाँ था!
हँसे अधरों में जब थे, द्रोण ही क्या, भीष्म तक भी,
नहीं केवल युधिष्ठिर और अर्जुन; भीम तक भी।
" कहा था 'सूतवंशज' द्रोपदी ने कर्ण को ही,
समझ सकते हो कितना कठिन होगा काल द्रोही,
मुदा वह भी सहा था, कर्ण सहने के लिए है,
कहा कुछ न किसी से मुँह-अधर अपना सिए है।
" अगर पूछा है तुमने, तो सुनाऊँगा सभी कुछ,
समय आयेगा वह भी एक दिन जब, पर अभी कुछ,
सुनो, कृष्णा सभा में जब वहाँ लाई गई थी,
नई बदली-सी सुन्दर और भी सुन्दर नई थी।
" सभा की चेतना थी जड़, विगत में लीन था मैं,
किसी गहरे अतल सागर में बैठा मीन था मैं।
कहीं पर द्रोण चिंतित थे दु्रपद के द्रोह से ही,
पितामह भी ग्रसित थे पांडवों के मोह से ही।
" कहाँ था कौन शासक, कौन सेवक, कौन आसन,
हवा में उड़ रहा था सुरभि से निर्मित सिंहासन,
तभी आए वहाँ थे कृष्ण हाथों को बढ़ाए,
वहाँ जो भी उपस्थित थे, नहीं कुछ जान पाए.
" निकल आई सभा से द्रोपदी सौदामिनी-सी,
दिखी थी एक क्षण में श्याम नभ पर वह कनी-सी.
सभा की चेतना लौटी पहर के बाद ही थी,
महल सूने, नगर सूना, निरापद चौक-वीथी।
" किसी के हो-न-हो लेकिन मुझे था ज्ञात भावी,
स्वयंवर की कथा को था सुयोधन से कहा भीµ
वहाँ जब साथ केशव थे, यहाँ होते न कैसे,
कभी अनुराग छिपता है कहीं भी प्राणभय से?
" कहोगे तुम ' मिला वन पांडवों को न्याय है क्या?
अगर न हाय है यह, तो कहो फिर हाय है क्या?
मुझे भी दुख बहुत है पांडवों के वनगमन का,
सभी ढंग से व्यवस्थित राज के ऐसे पतन का।
" उठाती द्रोपदी होगी बहुत ही कष्ट वन में,
कहीं वह टूटती होगी बहुत अपने यतन में,
कभी घनघोर वर्षा, तेज आँधी, डर निशा का,
विपद का अंत भी है क्या मनुज पर उस कशा का?
" मुदा है दोष किसका, जानना यह भी उचित है,
किसी छल-छद्म से हरिप्रस्थ जो ऐसे विजित है;
प्रजा कैसे सुखी होगी व्यसनरत जो प्रशासक?
जुए का जो युधिष्ठिर आदि हो, तो घोर पातक।
" वहाँ धन-धान्य ही क्या, नारी-रक्षा भी असंभव,
व्यसन तो सिद्ध होता है हलाहल, घोर आसव;
विकट यह रोग है जिसको लगा छुटता नहीं है,
जमा तो जम गया गिरि-सा ही, फिर उठता नहीं है।
" युधिष्ठिर ने जुए में खो दिया कृष्णा को; धिक है,
कहूँगा, तो कहोगे ' कर्ण यह कहना अधिक है;
इसी से चुप बना रहना समझते सब, उचित है,
वहाँ पर न्याय का इसमें कहाँ कुछ हित निहित है?
" सुनो, इन बातों में अब क्या रखा है, अर्थ ही क्या?
जुए की बात लगती है नहीं अब व्यर्थ ही क्या?
नहीं क्या आठ वर्षों से अधिक बीता समय है,
कठिन जो काल कौरव पर घिरा था, अब सदय है।
" नहीं पर शांत अब भी हूँ, मेरा मन जानता है,
हृदय की बेकली को ठीक से पहचानता है।
जलाया है विपिन को, नागकुल को, वह विधर्मी,
कभी भी क्षम्य होगा काल से ऐसा कुकर्मी?
" नहीं खांडव जला है, देश की काया जली है,
निरीहों को सताए, क्या वही सचमुच बली है?
भले ही आग वन की हो गई हो शांत-शीतल,
अवधि की बह गई हो बाढ़ लेकर धार खलखल।
" मुदा मेरे हृदय की आग की लपटें दिगम्बर,
समा जाए कि जिसमें एक क्या लाखों स्वयंवर;
प्रकृति के पुत्रा का जो शत्राु है, उस पर दया क्या!
यहाँ भी चुप रहा, तो जन्म लेकर भी लिया क्या!
" जहाँ इतना बड़ा संहार नर का हो गया हो,
वहाँ पर भी क्षमा क्या, नम्रता अरि पर दया हो?
मुझे यह आग वर्षों से जलाए जा रही है,
तुम्हें मैं क्या बताऊँ पीर कैसी अनकही है।
" नहीं वह नींद आँखों में, जहाँ मधुमास खिलता,
नक्षत्रों के भरे हों तामरस, आकाश खिलता।
हवाएँ पास आकर आँधियाँ बन कर गरजतीं,
कभी जो मेघ घिरते हैं, तो चट्टाने बरसतीं।
" इन्हीं के बीच हिमगिरि-सा खड़ा मैं आज तक हूँ,
वही जो सत्य है, उस पर अड़ा मैं आज तक हूँ;
मिला हरिप्रस्थ का जब राज्य आखिर पांडवों को,
बहुत तो दुख नहीं इस बात से था कौरवों को।
" मिली जो दिग्विजय तो द्वेष किसको कब हुआ था?
प्रदर्शन यज्ञ में धन का हुआ जब, तब हुआ था;
उठी थी दिक्विजय की चाह कौरव के हृदय में,
वहीं से लग गया था मैं तुरत ही दिक्विजय में।
" वहाँ तो पाँच भाई थे, अकेला मैं यहाँ था,
विजय की बह गई थी बाढ़ लेकिन मैं कहाँ था?
हुआ था यज्ञ भी लेकिन किसी का वध न देखा,
मनुज के बीच न खीची गई थी क्षीण रेखा।
" यही तो यज्ञ होता है, कटे न सिर किसी का,
बँधा हो भाग्य सुख से उस जगह में हर किसी का;
जहाँ कुछ बोलने का हो नहीं अधिकार, बोलो,
वहाँ क्या धर्म होता है? हृदय अपना टटोलो!
" सुयोधन-कर्म को नीचा दिखाना तो सहज है,
मुझे यह ज्ञात है, आचार्य मन कितना विरज है!
यहाँ तो हस्तिपुर में खेल छद्मो का छुपा है,
अभी तक बच रहा है यह नगर, उसकी कृपा है।
" नहीं मैं चाहता कुरुवंश का विध्वंश, जानो,
मुझे तुम सृष्टि का रक्षक, तपन का अंश जानो!
तमिòा का नहीं कुछ भय, दिवासुत हूँ, विभाकर,
कभी हृद में भी झाँका है अनल को, आकर। "
तभी फिर बोल गूँजे थे कि ज्यांे शीशा गिरा हो,
उधर तम में पुनः वसुषेन का मन ज्यांे घिरा हो;
सुना इस्थिर नयन से जो कहे वह जा रहा था,
गलाए काँच-सा ही कर्ण-श्रुतियों को लगा थाµ
" बहुत तुम बोल बैठे, चुप रहो, मेरी सुनो, अब,
कभी भवितव्य पर सोचा, समय विपरीत हो जब?
कहा जो व्यास ने है, क्या नहीं तुम जानते हो?
समय अब काल-सा है, क्या नहीं पहचानते हो?
" अगर सचमुच नहीं तुम युद्ध के हो पक्ष में तो,
यहाँ रह कर नहीं इस प्रान्त का दुर्भाग्य नेतो!
तुम्हारी बाहुओं की शक्ति का यह खेल ही है,
सुयोधन से तुम्हारा यह अनूठा मेल ही है।
" नहीं उसको सुहाता शांति का संवाद कोई,
इसीसे सह नहीं सकता है वह प्रतिवाद कोई;
तुम्हें भी चाहिए क्या दिक्विजय का भाग आधा?
सुयोधन से कहो फिर; रोकती है कौन बाधा?
" नहीं तो बात क्या है, तुम उसी के साथ होते,
जहाँ वह कोड़ता मिट्टी, वहीं पर बीज बोते;
सुनो, जो युद्ध होगा, तो तुम्हीं दोषी बनोगे,
तुम्हें यह ज्ञात भी है युद्ध में किसको हनोगे?
" तुम्हारे ही अनुज होंगे, तुम्हें यह भी पता है,
कहो क्यों भूलते हो, तात ने जो कुछ कहा हैµ
तुम्हारी जब पृथा है माँ, तुम्हारा कौन अर्जुन?
कहो किसके लिए है यह हृदय में क्रोध अनधुन? "
सुना जो नाम कुन्ती का हुआ विचलित अचानक,
कि जैसे युद्ध-भू में वीर थिर हो शांत श्रावक,
अनल वह द्रोह का उठता हुआ है शांत-शीतल,
शशक-सा छिप रहा है झुरमुटों में क्रुद्ध चीतल।
धुआँ और आग खांडव के छटे पावस-पवन से,
हवा में उड़ चला है छोड़ काया कर्ण मन से;
अनोखे देश में पहुँचा जहाँ न क्लेष कोई,
भविष्यत-भूत के अवसाद का न लेश कोई.
शिराओं में भरा संगीत फिर से मेघवन का,
वही विस्तार चम्पा-चीर-चानन के अयन का।
तभी फिर से उठा वह बोल, क्षण भर जो छुपा था,
अचानक तेज आँधी से लगा पीपल कँपा थाµ
" कहो, क्या सोचते हो कर्ण, मन का भेद खोलो,
जिसे पहचान ही पाए नहीं, उसको टटोलो!
तुम्हारे देश की चम्पा तुम्हें कबसे बुलाती,
यहाँ हस्तिन नगर में रह के कैसे नींद आती!
" नहीं क्या सुध वृषाली की तुम्हें कुछ भी भिगोती?
तुम्हारे लौट आने की मधुर आशा संजोती।
कभी जब देखती होगी इधर को एक टक से,
अचानक टूटती होगी सजीली नींद भक से।
" तुम्हारा दूसरा सुत जो तभी तो गोद में था,
नहीं चम्पा ही केवल अंग पूरा मोद में था,
" कनक के थाल में वह स्वर्ण-मणि का दान जी भर,
नगर के विप्र, दीनों का खुला सम्मान जी भर।
" वही अब हो गया है सुत तुम्हारा कुछ बड़ा-सा,
कलाई में सुशोभित स्वर्ण का कंगन-कड़ा-सा;
प्रजा के सुख-दुखों में साथ रहता है तुम्हीं-सा,
बड़े वृषसेन-सा वृषकेतु भी लगता जयी-सा।
" समय अब आ गया वृषकेतु को है ब्याहने का,
विहित जो धर्म है उसको नहीं अवमानने का;
सुयोधन ने कहा जो, कर दिया, निज कर्म देखो,
तुम्हारा धर्म अब तुमको पुकारे, धर्म देखो!
" तुम्हारी ही प्रतीक्षा में जली-सी है वृषाली,
तुम्हारे ही सहारे वह, नहीं तो बहुत खाली। "
अचानक खो गया स्वर गूँज पीछे में उठाता,
करुण संगीत की लहरें दिशाओं में बिछाता।
नहीं कुछ बोल पाया कर्ण था सर को झुकाए,
नयन की पुतलियों को पुतलियों पर है गिराए,
रहा कुछ देर यूं ही, फिर गगन की ओर देखा,
क्षितिज को अपनी बाँहों को उठाए भोर देखा।
कहा इतना ही उठ कर, " सब समय पर सिद्ध होगा,
टिका है जो अनय पर धर्म से वह विद्ध होगा;
अभी तो ठीक ही होगा कि चम्पा लौट जाऊँ,
दिगम्बर छन्द की टूटी हुई कड़ियाँ सजाऊँ!
" शिराओं में सभी सोए हुए सपने जगाऊँ,
अभी तो ठीक ही होगा कि चम्पा लौट जाऊँ!
यहाँ बैठे हुए चिनगारियों को क्यों उठाऊँ,
अभी तो ठीक ही होगा कि चंपा लौट जाऊँ!
" तनय वृषकेतु को अब अंगपति जाकर बनाऊँ,
अभी तो ठीक ही होगा कि चंपा लौट जाऊँ!
वृषाली पर अकेले अंग-शासन भार पाऊँ,
अभी तो ठीक ही होगा कि चंपा लौट जाऊँ!
" पिता के और पति के धर्म को मैं क्यों लजाऊँ,
अभी तो ठीक ही होगा कि चंपा लौट जाऊँ!
पिता, पति, भूमिपति के धर्म को ऊँचा उठाऊँ,
यही तो ठीक होगा कि चंपा लौट जाऊँ! "
गगन में सूर्य की किरणें उठी ही जा रही हैं,
तमस की अब कहीं साँसें घुटी ही जा रही हैं;
उड़ाए जा रहा है कर्ण रथ को व्योम-पथ पर,
दिशाओं में ध्वनित है एक ही बस नाद घर्घर।
सुयोधन सोच न पाया, हुआ यह क्यों अचानक,
अशुभ कुछ सोचना होगा अमंगल, घोर पातक।
इधर है डूबता अब सूर्य किरणों को समेटे,
उधर पूर्वी क्षितिज पर भोर किरणों को लपेटे।