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आश्रय / अरुण आदित्य
Kavita Kosh से
एक ठूँठ के नीचे दो पल के लिए रुके वे
फूल-पत्तों से लदकर झूमने लगा ठूँठ
अरसे से सूखी नदी के तट पर बैठे ही थे
कि लहरें उछल-उछलकर मचाने लगीं शोर
सदियों पुराने एक खण्डहर में शरण ली
और उस वीराने में गूँजने लगे मंगलगान
भटक जाने के लिए वे रेगिस्तान में भागे
पर अपने पैरों के पीछे छोड़ते गए
हरी-हरी दूब के निशान
थक-हारकर वे एक अन्धेरी सुरंग में घुस गए
और हजारों सूर्यों की रोशनी से नहा उठी सुरंग
प्रेम एक चमत्कार है या तपस्या
पर अब उनके लिए एक समस्या है
कि एक गाँव बन चुकी इस दुनिया में
कहाँ और कैसे छुपाएँ अपना प्रेम ?