भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ईश्वर की मृत्यु / त्रिलोचन
Kavita Kosh से
मृत्यु हो चुकी है ईश्वर की, नया आदमी
अब इच्छानुसार करता है काम । क्या रहा
जो उस ने न किया हो । कोई भी कहीं कमी
नहीं रही है । ठाठ-बाट का महल है ढहा
सामंती युग का । स्वाभाविक मौत न पाई
ईश्वर ने; पूँजीपतियों ने, सामंतों ने,
उसे मार डाला उस की खा गए कमाई,
देश-देश में जो संचित थी । विषदंतों ने,
पूँजीवादी साँप के, ज़हर को फ़ैलाया
वह समाज के रग-रग में हड़कंप मचाता
हुआ आज भी काम कर रहा है, बन पाया
नहीं किसी से कुछ; रोगी कराहता जाता
अमृत समाजवाद का विष को काट सकेगा,
युग-युग के गम्भीर नरक को पाट सकेगा ।