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उद्धव-कृष्ण-संवाद / अमरेन्द्र

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कान्ह, कान्ह, दशा ये क्यों अपनी बनाये फिरो
कभी कुछ बोले नहीं कान्ह क्या वो राज है
आप आप ही आँखें ये बहती निशि औ दिन
जटा यूँ बढ़ाए तुम्हें राज से न काज है
अंग ज्यों कटीले द्रुम अंगुली बने ये शूल
पागल बने-से लगो भूषण न ताज है
घायल बने ज्यों फिरो हिरण कस्तूरीहीन
बोलो न कन्हैया क्या तू मुझसे नाराज है ।

मीत क्या छुपाऊँगा तुम तो सखा हो मेरे
गोपिन की यादें मुझे व्याकुल बनाती हैं
कितना ही धीर धरूँ चाहूँ मैं भुलाने को भी
कोई न भुलाए भूले आँखें भर आती हैं
बेचैन विकल बने घायल बना-सा फिरूँ
उनकी झुकी-सी थकी अखियाँ सताती हैं
मथुरा निवास करूँ, मन ये मेरा है वहाँ
उनके वियोग में क्या दौलतें सुहाती हैं ।

लाल-लाल गाल बने लाज से सनी वो राधा
भूमि को निहारे नैन अरुण अलस थे
वसन-भूषण अंग संग जो अनंग जगे
रजत सुभूमि पर मोहक कलश थे
यमुना सुभग वक्ष उठी हो लहर लोल
देह की लता में गुँथे अनूप थलज थे
रह न सका मैं मौन बाहु में लिया था बांध
धायल बने थे दोनों दामिनी-जलद थे ।

मुख थे विधु के विम्ब कुन्तल कालिन्दी पर
नाग के समान केश घेरे मुखमणि को
अम्बुज मुकुल नैन कंवु के सदृश्य लगे
आनन-क्षितिज घेरे नखत की कणी को
नासिका सुआ-सी नीक बैन बाँसुरी-से मीठे
गज नत देख गजगामिनी तरुणी को
काजल घटा से घिरे अनुप शशांक नैन
मसृण मंजुल अंग भूलूँ क्यों रमणी को !

यहाँ के विपुल सौध मणि से जटित खम्भ
ब्रज के कुटीर सम मन को न भाते हैं
चाहता कालिन्दी-कूल, कदम्ब-करील मन
कनक आसन ये ना मन को सुहाते हैं
षटरस व्य×जन न मुझको रिझाते उधौ
मुझको मोहक क्षीर-माखन बुलाते हैं
घायल बनाती सुधि नंद-यशोदा का लाड़
इसी से हमारे आँसू बह-बह जाते हैं ।

तरणि तनूजा तट वहीं पे कदम्ब छाँह
बैठ के बजाना वेणु गोपी को रिझाना वह
अधर अधर पर, कंचुकी बंधनहीन
कामिनी का लाजवश मुँह को छिपाना वह
किरण कलाधर की करती क्रीड़ा थी निशि
मलय पवन का भी मंद बह जाना वह
वेल्लि झूमती थीं मत्त द्रुम से लिपटे जब
घायल मैं सुधि करूँ गोपी का मनाना वह ।

जिससे ग्रहण द्युति करते चमकते हैं
दीप्त वो दिवाकर क्यों आज यों मलीन है
मोहक माया को दूर करने वाले हो कान्ह
माया से ही पीड़ित क्यों, ब्रह्म जो प्रवीण है
तुमको चाहने वाले तुममें सदा हैं लीन
तुमसे विलग भूत ऐसा तो कहीं न है
सृष्टि के प्रत्येक कण में तो तुम विद्यमान
नंद-यशोदा-गोपी में क्या न तू आसीन है ?

सच है ये उधौ, सबमें हम हैं, सब ही हम में, जस गंध-प्रसूं
पर प्रेम पुती सुधि ग्वालिन की करती अति व्याकुल, कैसे हँसूँ
हम भूल चलें, हम ब्रह्म उधौ, इसमें सुख है उसमें न भसूँ
यह ज्ञान मरुथल, प्रेम सुवास है, घायल हूँ, इसमें ही बसूँ ।

भक्त हँसे हँसते हम हैं परपीड़न से मम नैन बहे
ज्यों अलि पंकज में निशि में उनके वश में सुख-पीर सहे
घायल ना यदि देख सको, चुप गोपी करो ! घनश्याम कहे
योग रमाये यदि ब्रज को मतिवाले कहूँ तुमको मैं अहे ।

उधौ जा गोकुल गाँव रखो अपने तू पाँव
शीतल पुनीत ठाँव जग में है प्यारा वह
बैठी होंगी गोपिकाएँ आयेगा कन्हैया कब
देखोगे जाओगे जब कुञ्ज जो है प्यारा वह
मोर को लगाए कोई बैठ औ कदम्ब पर
वेणु भी करों में होगा, मुझे जो है प्यारा वह
तभी कन्हैया के नैन बहे जब रुके बैन
भूले ब्रह्म आत्मरूप, उधौ का जो प्यारा वह ।

सुन-सुन उद्धव ये कदम्ब समान फूले
खुशी के कारण वाणी रुक-रुक जाती है
चाहते कन्हैया कुछ कहे उधौ से संदेश
तभी ही हिचकी साथ दृष्टि भर आती है
‘तुम्हारे स्नेह बिन दीपक स्नेहहीन’
इतना ही कह पाए वाणी थक जाती है
उसाँसे सघन चले पग डोलने-से लगे
घायल कन्हैया में हा मूच्र्छा समाती है ।