उभयचर-19 / गीत चतुर्वेदी
अभी-अभी सुबह हुई है यह समय सुबह से बहुत दूर है
अभी-अभी घर पहुंचा हूं यह जगह घर से बहुत दूर है
अभी जो सपना देख रहा हूं वह उन सपनों की संतान है जो अभी-अभी मरे हैं
सपनों के वैधव्य का विलाप है जिसमें रुंध जाती है कहीं पहुंचने की मेरी गति सुनने की शक्ति
जिसका शरीर 19वीं सदी के रूसी उपन्यासों की तरह था
वह औरत बरसों पहले मर चुकी है जिसे खोजता मैं यहां तक आया
वह अभी-अभी यहीं एक बच्चे की उंगली पकड़ सड़क पार करना सिखा रही थी
यह उस औरत ने बताया अभी-अभी जो यहां थी ही नहीं कभी
दूसरों से आदमी होने की उम्मीद वही करता है जो ख़ुद कभी आदमी नहीं हो पाया
लगातार इसके क्षोभ में रहता है
मनुष्य होने के लिए कलाओं की ज़रूरत नहीं जितनी अ-मनुष्य होने से बचने के लिए
उसने कहा तुम जैसे हो वैसे ही रहो मुझे आज तक समझ नहीं आया क्या और कैसा हूं मैं तो कैसे रहूं किस तरह
सिर्फ़ इतना कह सकता हूं
तुम्हारे लिए जो कविताएं नहीं लिखीं मैंने वे कविताओं से ज़्यादा हैं
जो संगीत नहीं रचा मैंने वह संगीत से ज़्यादा है
जो वचन मैंने नहीं निभाए सो इसलिए कि हमारे बीच सब कुछ ख़त्म न हो जाए
तुम तकाज़ा करती रहो और गुंजाइशें बची रहें