भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एकटा घर / प्रवीण काश्‍यप

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमरा सँ जेना किछु हेराय गेल छल
जीवनक ओ मधूर सूक्ष्म पल सभ
जकर निरन्तर आवृति हमरा मे
प्राणक संचार करैत छल!
प्रवासोपरांत अपन खोंता में
घुरैत विहगावली कें देखि
हमरो मन परि जाइत अछि घर
आ महत्व अपन परिवारक
जतऽ पहुँचि कऽ भूलल-भटकल पथिक कें
चाही किछु कालक विश्राम!
आलिगंन चाही कोमल स्पर्शक,
दिन भरिक कठोर सत्य सँ
लड़ैत-लड़ैत, जीतैत-हारैत
ऊँच-नीचक दृष्टि सँ दूर
चाही समदृष्टि बालबोधक!