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एकमेक / दिनेश कुमार शुक्ल

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उधर मत जाना वहाँ पर प्रश्न रहते हैं
जानती हो तुम
हमारे पास भाषा तक नहीं है
हमारे पास केवल उलझने हैं
कठिनताएँ हैं
लटों से लट उलझती है
शिराओं से शिराएँ
मौन मेरा लीन होता है
तुम्हारे मौन में

मेघ-कुन्तल सघन-पालव
भटकती फिर रही विद्युत्
कभी दिपती कभी छिपती
हजारों कामनाएँ सघन अमराई
रसायन-सान्द्र जीवन का पिघलता
स्वेदरन्ध्रों में समा कर
श्लेष्मा को तिलमिला देता
रक्त घुलता रक्त में
तुम्हारा सत्य
मेरे सत्य को झुठला रहा है

मुँदी हैं पलकें
जलज की सजल आँखों की
झील की गहराइयों से
फूट कर निकले
कमल के कुमुदिनी के फूल
खिलने में अभी सदियाँ लगेंगी

थके हारे हैं हमारे हृदय
जिनके निलय में सागर-
लौटते दो ज्वार
आपस में वहीं टकरा रहे हैं

सघनता में घिरी
कितनी अगम दुनिया
यहाँ पर यक्ष रहता है
यहाँ पर प्रश्न रहते हैं
यहाँ कोई नहीं रहता
यहाँ बस हमीं रहते हैं
हमारे पास तुम आना।