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औकात / हरीश बी० शर्मा

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वह बड़ा दर्पण
अचानक सामने आ गया
नहीं करना चाहता था मैं सामना
कोशिश भी की।
ढांप लिया चेहरा हथेलियों से
फिर भी खुद को देखने का
लोभ संवरण नहीं कर पाया
बढ़ने लगा फासला उंगलियों के बीच
दिखा मैं
कैसे मानता मैं था वह
गलत दिखाने की सजा मिलनी ही थी
अगले ही पल-बिखरा था दर्पण
सच बताने के जुर्म में
मुझे औकात बताने की सजा
हां, मैंने अपनी औकात बता दी।