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औरत / प्राणेश कुमार

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जंगलों में भागती मैं,
रास्ते बंद
हाँका लगाया जाता है,
मेरे पीछे दौड़ते हैं शिकारी।
 
प्रसूतिगृह के बाहर
थमती रही है हवा,
सदियों से मेरा रुदन भी नहीं तोड़ पाया है
गहरा सन्नाटा,
नीम बेहोशी में ही दुलारती रही है
मुझे मेरी जन्मदायिनी,
होश आते ही भीगा चेहरा
देखा है मैंने सामने
मेरे अपनों के ख़ामोश चेहरे
पूछते रहे हैं मुझसे
क्यों आ गयी हो तुम?
 
मेरे डगमगाते नन्हे पाँवों ने
खुद-ब-खुद सीखा है लहूलुहान होकर चलना,
धरती ने ही अपनी समक्ष सँभाला है मुझे,
धूप और बारिश में भीगती रही हूँ मैं
खेतों में, पगडंडियों में
मेरे नन्हे हाथों ने महसूसा है
माँ के आँसुओं की गर्मी,
खेत, पगडंडियाँ
पिता की तेज नजरें,
पूछते रहें हैं मुझसे
क्यों आ गयी हो तुम?

 मेरे आगमन को करुणा से देखती हैं
आग की लपटें,
मेरे होने पर चटखती हैं
चूल्हे में जलती लकड़ियाँ,
मैं प्रश्न हूँ और उत्तर भी,
मैं दस्तक हूँ बंद दरवाजों पर,
सन्नाटे के बीच गूँजती आवाज़
चीख सभ्यता के अल्मवरदारों के खिलाफ।