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कग़ार पर / केशव
Kavita Kosh से
कोने मन के
उदास लटके हैं
मकड़ी के जाले-से
ये दिन
गुज़रते नहीं
गिन
गिन
रह-रहकर उठती है टीस
यादों के कुहरे में
क्यों इतनी देर रुके
फासले न खुद से मिटे
ढल भी गई धूप
चलने के वक्त
क्यों न चले
न हुए अपने सगे
रहने को साथ रहे
खड़े उम्र की कगार पर
राह किसकी तकते रहे
इस तरह हम हरदम
अपने ही सूने में
सुलगते रहे
पल
छिन