भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
करुण पुकार / हरिवंशराय बच्चन
Kavita Kosh से
करुण पुकार! करुण पुकार!
मानवता करती उद्भूत
कैसे दानवता के पूत,
जो पिशाचपन को अपनाकर
बनते महानाश के दूत,
जिनके पग से कुचला जाकर जग-जीवन करत चीत्कार।
करुण पुकार! करुण पुकार!
मानव हो व्यक्तित्व विहीन,
जड़, निर्मम, निर्बुद्धि मशीन,
आततायियों के इंगित पर
करता नंगा नाच नवीन,
युग-युग की सभ्यता देख यह कर उठती है हाहाकार।
करुण पुकार! करुण पुकार!
कारागारों का प्राचीर
बंदी करता कभी शरीर
चोर, डाकुओं, हत्यारों का;
आज जालिमों की जंजीर
में जकड़े आदर्श सड़ रहे, घुटते हैं उत्कृष्ट विचार।
करुण पुकार! करुण पुकार!