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कल्पना / निदा नवाज़
Kavita Kosh से
जब सब कुछ डूब जाता है
अन्धकार की बाढ़ में
तैरता रहता हूँ मैं एकांत
तुम्हारी ही नयन झील में
चुनता हूँ ओस भरी
कमल की एक-एक पंखुड़ी
और कुछ क्षण के लिए
भूल जाता हूँ अपना शहर
जहां गुस्से में धुंधलाते हैं सर्प
और बाज़ारों में घूमते हैं अजगर
जहां असंख्य प्रश्न
वेदना व्यथा के अश्रु बने
भीतर ही भीतर दम तोड़ते हैं
और तुम्हारी कल्पना
पगली सी
छुपाती है
मेरे भयभीत चेहरे के साथ साथ
मेरी पीड़ा को भी
अपने महकते नर्म
बालों की लंम्बी लटों में.