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कालपुरुष / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
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कुपित काल - पुरुषक कठोर मुख भृकुटि कुटिल ई साओन-भादव!
के दुरन्त दोषी जकरापर, तडित दण्ड छोड़थि तकरापर
मेघ गर्जने तमकि-तमकि पुनि उमड़ि ऐल अछि क्षुब्ध क्रद्धतर
आइ बरसि पड़ता ने जानि ककरापर, कखन? सशक भेल सब
कुपित कालपुरुषक कठोर मुख भृकुटि-कुटिल ई साओन-भादव।।1।।
झझानिल छल कोपेँ कम्पित, बलित शरीर तडित ज्वालावृत
बज्र खसावथि तनिकापर जे मानिनीक नहि चरण-प्रान्त नत
बरजि रहल छथि गरजि-गरजि कय अशरण पथिकक हन्त पराभव
कुपित काल-पुरुषक कठोर सुख भृकुटि-कुटिल ई साओन-भादव?।।2।।