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कितनी-कितनी/ हरीश भादानी

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कितनी-कितनी
और कैसी-कैसी
होती हैं जरूरतें
तेरी और मेरी

चेहरे पर
एक चुल्लू पूरब
छींट लेने की घड़ी से
तन जाने तक
आंखों में
थकान का मांजा
हो जाती हैं ये
यहां वहां वहां यहां
रख आती हैं ये
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे तगारी

राजा जनक
उर्फ विदेह बनी रहती हैं
आंखें बिचारी
देखना पड़ता ही है उन्हें
देहों से
चूता हुआ झरना
सूंघनी पड़ जाती उनको
मितलियाती गंध

वो जो हैं
तेरी और मेरी
उनके सोने को
कहा भी कैसे जाए नींद
वे सोती हुई भी
बोलती हैं गोया
पूछती हों
पोथियां-निष्णात वर्दियों से
उनके ही
दीक्षान्त भाषण का खुलासा
फेंक देती हों
चिकनी मेज के उस पार
चेहरे पर
मस्टर रजिस्टर
क्या मजाल
जो दिठौने भर ही
लग जाए खरोंच

टोक देखे तो
इन्हें कोई
सूरज को धकेल
थाली थामती
किसी भी एक को
तमतमा जाएंगी
अलाव में पकने पर
खींचली जाती
सुर्ख छड़ियों की मार्निद ये
गर्मा दें
सारा आस-पास
वो.....वो जो गंगा
फूटती है
रसोई में
तकाजों के सारे दहाने
तोड़ देती है
खुद तो खुद
आंगना थाली तक
डूब तिर जाता है उसमें

वे जो हैं
तेरी और मेरी
बोल ही नहीं पाती कि
आंखों में
मांजा तना है कि
हाड़ों में ठनी है होड़
एक दूजे पर
आ बैठ जाने भी
इस तरह इनके
चुप हो जाने को
कह दिया जाए
भले ही नींद पर.....

ये जरूरतें
तेरी और मेरी
तोड़कर
किवाड़ मांजों-तनावों के
देख ही जाती हैं ये
बड़े-बड़े संसार
ले कई-कईयों को साथ
तय कर जाती हैं ये
अनसुनी
अनदेखी दूरियां

नींद में
खुशफ़हम होती
तेरी और मेरी जरूरतों को
कौन समझाए कि-
साथ लेने का कि-
दूरियों को
जोड़ लेने का कि
बांस ऊपर बांस
बांस के माथे
तगारी का कि-
चिकनी चाम ऊपर शिकन
मांड देने का कि
पीछे छोड़कर भगीरथ को
रसोई के
सारे दहाने तोड़कर
आगे निकलने का कि-
भंभड़ों की चीख से
भय खा
सूखी हुई पर गर्म
छातियों से
चिपक जाने का अर्थ
पोथी पढ़-पढ़
लार होना है तो
तुझको और मुझको
इन जरूरतों की मार पर
फकत बदनाम होना है
धुरी तो हैं ही ये
तेरी और मेरी
देखना तो यह कि
फिरकनी सी
फिराए ही रहें ये
तुझको और मुझको
या फिर
ये ही
फिरकनी सी फिरें फिरती रहें
            
दिसम्बर’ 77