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किनारे / आशुतोष दुबे
Kavita Kosh से
किनारे हमेशा इंतज़ार करते हैं
वे नदियों के दुख से टूटते हैं
और उनके विलाप में बह जाते हैं
जब सूखने लगती है नदी
किनारे भी ओझल हो जाते हैं धीरे-धीरे
वे एक लुप्त नदी के अदृश्य किनारे होते हैं
जो चुपचाप अगली बारिश की प्रतीक्षा करते हैं
लगातार बहते हुए वे अपने थमने का इंतज़ार करते हैं
जिससे वे हो सकें
वे अपने होने का इंतज़ार करते हैं