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किन्नर / निवेदिता झा

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1)

उसको
सजने की आदत थी
बेली, उडहूल, जूही बाँध लेती
उस छत्ते से जूडे में जिसने वर्षों पहले
देखी हो शायद
अपनी देखरेख की कोई कोशिश

वो समय को भी छिपा लेती थी
भीतर उस खोपे में
जहाँ भ्रम था कि रुका रहता है समय
मानने लगे उसे स्त्री
और मँडराने लगे दुनिया
पागलों का वेश और झुकी नजरें
सिलिकान से सजी ' खोती...
जबरदस्ती का साबित करना
कि उसकी लय तरंगे मिलती जुलती हैं
बिना गंध के
भय से आक्रांत है
प्रेम में राज़ के जाहिर होनें से

वो मिलेगा कुछ बर्षों के बाद
जानते ही सच्चाई
प्रेम खो जाएगा

2)

तुम कौन हो
आदिकाल से
रामायण में भी, महाभारत में भी
हिन्दु में भी इस्लाम में भी
हो अपना अस्तित्व बनाये
एक अलग जगह पर, सबसे अलग
अर्द्धनारिश्वर कहूँ तो शायद मिलती मिलेगी परिभाषा

कोख तो तुम्हें भी जन्म देती है
अघोर प्रसव पीड़ा के बाद
पहली ही गोद तिरस्कार से फेर लेती है मुँह
माँ गले से फिर भी लगाती है
सबसे राजदुलारे
माँ की पेशानी पर के छोटे-छोटे कण
छुपा लेती है आँचल
रात भयावह होती है
कोई ले न जाये उसे बहुत दूर
वो दिन आ भी जाता है

तुम फिर भी सबके मन के प्रश्न चिह्न हो
एक अलग जगह पर आसीन
जब हँसती हो तो स्त्री
और मुस्कुराने पर पुरूष लगते हो
चेहरे सपाट
ज़ख़्म के छोटे-छोटे बिन्दु
कभी किसी को दिख जाते हैं
कोई देखना नहीं चाहता
मुस्कुराते गुजर जाते हो सबके सब
उनके मनुहार का एक अस्त्र होता है
बजाते हैं ताली
ठिठक जाते हैं सब के सब
अपनी व्यथा को मन में रख कर दुआयें देते हो
कहते हैं त्रेता में तुम्हें शक्ति मिली
शुभ बनाने, निभाने और आशीर्वाद देनें

तुम्हारी भी रात होती है
सोने-गहनें और दुख को उतारने वाली रात
सिसकने की रात
अपने घर को याद करके, बचपन की रात
दिन में बेफिक्र हर लालबत्ती पर
या बड़ी गाड़ियों में बेधडक चले जा रहे हो।