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कुआँ / मदन कश्यप
Kavita Kosh से
पृथ्वी गर्भ में गहरे धँसी अपनी जमुवट पर
दृढ़ता के साथ खड़ा रहता है कुआँ
छाती में पोरसा भर जामुनी जल समेटे
हिलोरें नहीं उठतीं उसके शीतल निर्मल नीर में
हाँ कभी-कभी बुल्ले फूटते हैं
जब उसके कुलबुलाते सोते
कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो जाते हैं
थोड़े से जतन और जुगत से
कोई भी पी सकता है उसका पानी
अन्यथा जगत पर सिर पटक-पटक कर मर जाओ
तब भी प्यास बुझाने के लिए
अपना जल ऊपर नहीं उछालता है कुआँ!