कुछ नया / सुभाष राय
मैं कट गया हूँ बाहर की दुनिया से
बादलों, आन्धियों और ओलावृष्टि से
सुबह से शाम तक डेस्कटॉप पर
पागल की तरह माथा धुनना
और रात में ठण्डी रोटियाँ चबाकर
सो जाना, बस, इतना ही बचा हूँ
सोचता हूँ, की बोर्ड तोड़ डालूँ
और निकल जाऊँ खेतों की ओर
बगीचे में, खुले आसमान के नीचे
दौड़ पड़ूँ बेतहाशा लोगों से टकराते हुए
गिरते, लुढ़कते और फिर उठकर भागते हुए
थका दूँ अपने आप को, बहा दूँ अपनी सड़ान्ध
फेंक दूँ नोचकर ख़ुद ही स्वीकारी हुई जड़ता
मैं मरना नहीं चाहता कुर्सी में धँसे-धँसे
सोचता हूँ उखाड़ लूँ इसके हत्थे
और उसके बेहतर इस्तेमाल के बारे में सोचूँ
उसे जलाकर थोड़ी आग पैदा करूँ
या उसे जनता को ठगने वालों की
कपाल-क्रिया में लगा दूँ
मुझे यक़ीन है कि मैं बाहर निकलूँगा तो
आसमान में बादल छाएँगे, बरसेंगे
हवा तेज़ होगी और आन्धी में बदलेगी
अरसा हो गया भीगे, आन्धियाँ देखे और ओले खाए
सोचता हूँ कि यूँ ही बैठे-बैठे न मरूँ
कुछ नया सोचूँ, कुछ नया करूँ