कुर्बानियाँ / महेन्द्र भटनागर
विश्व के परतंत्र देशों की
जटिल दृढ़ शृंखलाएँ
टूटने को
आज झन-झन बज रही हैं !
आज प्रतिक्षण रण,
अमित कुर्बानियाँ
स्वातन्त्र्य-हित
प्रतिपल मचल कर हो रही हैं !
सिर्फ़ —
मरघट में चिताएँ हैं
शहीदों की,
नहीं ज्वाला बुझी,
धू-धू भयंकर और भीषण
हो रही है,
जल रही है,
बढ़ रही है !
यह उमड़ता ज्वार जनता का
कहीं पर रुक सका है ?
स्वर —
अवनि गिरते हुए तारक सरीखा,
क्या किसी भी घोर रव से
दब सका है ?
युद्ध की आवाज़,
एटम बॉम्ब का है नाम !
पर, ललकार —
इण्डोनेशिया छोड़ो,
भगो,
बर्मा व हिन्दुस्तान छोड़ो !
एशिया क्या —
विश्व के लघु राष्ट्र सारे,
एक बिगड़े सिंह जैसे
जग उठे हैं !
एक घायल साँप जैसे
फन उठाये दीखते हैं !
अन्त है फ़ासिज़्म का,
औ’ नष्ट होने जा रही हैं
विश्व की साम्राज्यवादी शक्तियाँ !
शोषण दमन का चक्र
जो अगणित युगों से चल रहा था,
आँख मींचे
फेक्टरी के बॉयलर में
कोयले के स्थान पर
श्रम-जीवियों के,
शोषितों के,
पद-दलित नत नीग्रों के
प्राण झोंके जा रहे थे
स्वार्थ-लोलुप-देश निर्दय !
आज वे सब
फड़फड़ा कर उठ रहे हैं !
घृणित दुखदायी हुकूमत को
पलटने उठ रहे हैं !
जो खड़े इनके शवों पर
तुच्छ रजकण से गये बीते समझकर
और बन कर बेरहम
करते रहे मर्दित पदों से,
लड़खड़ा कर गिर रहे हैं
एक करवट से !
उठे अब धूल से औ’ रक्त से रंजित,
चाहते —
अधिकार, आज़ादी, व्यवस्था।
पतित मानव की प्रगति का
चित्र सुन्दर रूप अभिनव।
साम्य का संगीत गूँजे,
रोक बन कर जो खड़े हैं —
आज
तूफ़ानी प्रबल आघात,
विप्लव ज्वाल,
प्रतिपल दृढ़ हथौड़े से
निरंतर चोट खाकर,
एक पल में बुद्बुदों-से,
आह भर
मिट जाएंगे।
ध्रुव सत्य —
जनता की विजय।
संक्रांति के जो इन क्षणों में
छा रही जड़ता, निराशा
वह नहीं वातावरण होगा,
प्रगति की आश का
दुर्दम प्रभंजन
विश्व के पीड़ित उरों में
दौड़ जाएगा प्रखर बन।