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कोलहल / राजेन्द्र जोशी
Kavita Kosh से
भीतर का कोलाहल
बाहर की आपाधापी
अपनों की दूरियां
सत्ता की मारामारी
नष्ट हो रहा मौन
पीछे छूट गया मनन
महंगा हो गया समय
सस्ती मनुष्यता
अधकचरी अहिंसा
घर तो बाजार बन गया
भीतर की समझ
लगा रही गोता
क्या पाएगी मोती
या खाली हाथ
नजर झुकाए लौट आएगी।