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खंडहर / राम नाथ बेख़बर
Kavita Kosh से
वह जो युवा है
अपने सपनों को
अपनी काँख में दबाए
काटता है दफ्तरों के
सैकड़ों चक्कर
वह जो बच्चा है
अपने सपनों को
पुस्तक के पन्नों में छोड़
धो आता है रोज
चाय की सैकड़ों जूठी गिलासे
वह जो अफसर है
अपने सपनों को
फूँककर उड़ा देता है
सिगरेट के धुएं के साथ
वह जो गृहणी है
अपने सपनों को
फूँक देती है रोज
चूल्हे की आंच में
वह जो लड़की है
अपने सपनों को
कुचलती है रोज
लोक-लज्जा के पैरों तले
वह जो बूढा है
इन्हीं टूटे हुए सपनों का
एक विशाल खंडहर है।