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ख़्वाहिशें / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
रात भर दस्तक देती रहीं
मेरे द्वार पर
वो ख़्वाहशें
वो इच्छाएँ
वो सपने
जो दिन के उजाले में
पूरे नहीं हुए थे।
दर दर भटकते रहे दिन भर
कभी भूख बन कर
कभी दवा बन कर
बेरोज़गारी का शाप बन
विवशता की आहें बन कर
बेगुनाहों की लाचारी बन।
सोने नहीं देतीं, वह ख्वाहशें
जो हर मजबूर इन्सान देखता है।