भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

खिलाफ / माया मृग

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुम्हारा मत,
तुम्हारे वाक्य
थपथपायी गई मेजों की योजना है।
तुम जो बोले तो
संसद सियारों का जंगल हो गई !
तुम अनुमति लेकर
खिलखिलाते हो -
तुम्हारी हँसी सबकी सहमति है,
सबकी हामी है।
मैं जो चीखा -
अकेला चीखा
अन्दर की अकेली महाशक्ति से !
मैं तुम्हारी योजनाओं के
दस्तावेज़ को फाड़ता हूँ
तुम्हारी व्यवस्था के विधान पर
पूरी घृणा से थूकता हूँ।
मैं अल्पमत हूँ
इसलिए मैं तुम्हारे
लोकतंत्र का
दुर्दान्त हत्यारा हूँ-
मुझे बहुमत के फैसले की
खिलाफत का अर्थ
ठीक से मालूम है
और मैं
तुम्हारे शस्त्रागार की
अनदीख ऊचाँई से
परिचित हूँ
फिर भी
ओ मसीहा-ओ !
बोल तेरे भीड़तंत्री भड़भूंजों से
भून डालें मुझे .....
मैं सरेआम
तुमसे बगावत का
ऐलान करता हूँ।