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खोजूँगी तुम्हें / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
हर रोज
कई रूपों में गढ़ती हूँ तुम्हें
फूल, तितली, आकाश
पानी, तारे और चन्द्रमा
सबको तुम्हारी शक्ल में ढालकर देखती हूँ
वे सारे रंग
भर देती हूँ तुममें
जो मुझे भाते हैं।
कभी पास
तो कभी दूर जाकर
हर ओर से देखती हँ तुम्हंे
डरती हूँ कि कहीं छूट न जाए कोई दिशा
जहाँ से मैंने तुम्हें न देखा हो।
तुम्हारी पूर्णता को
आँखों में भरकर
नदी की सतह पर सो जाती हूँ।
एक नये तट पर
खोजूँगी तुम्हें
कल सुबह जागने के बाद।