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गंगा से / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
जुग बीते
दज्ला से भटकी हुई लहर
जब तेरे पवित्र चरणों को छूने आई तो
तेरी ममता ने अपनी बाँहें फैला दीं
और तेरे हरे किनारों पर तब
अनानास और कटहल के झुंड में घिरे हुए
खपरैलों वाले घरों के आँगन में किलकारियों गूंजी
मेरे पुरखों की खेती शादाब हुई
और शगन के तेल ने दीये की लौ को ऊँचा किया
फिर देखते-देखते
पीले फूलों और सुनहरी दीयों की जोत
तिरे फूलों वाले पुल की कौस से होती हुई
मेहराब की ओर तक पहुँच गई
मैं उसी जोत की नन्ही किरण
फूलों का थाल लिए तेरे क़दमों में फिर आ बैठी हूँ
और तुझसे अब बस एक दीया की तालिब हूँ
यूँ अंत समय तक तेरी जवानी हँसती रहे
पर ये शादाब हँसी
कभी तेरे किनारों के लब से
इतनी न छलक जाए
कि मेरी बस्तियाँ डूबने लग जाएँ
गंगा प्यारी