गमले में / निवेदिता चक्रवर्ती
गमले में बरगद लगाने के,
उन्होंने खूब शौक़ पाले थे
पिंजरों में चिड़िया पलती थीं
मछलियां कहीं मर्तबानों में
किसी का आकाश चुराया था
समुद्र खरीदा था दुकानों में
कुछ दानों के एहसान तले,
दरवाज़ों पर बंद ताले थे
गमले में बरगद लगाने के,
उन्होंने खूब शौक़ पाले थे
फिर ज़ंजीरें टूटीं एक दिन
चटक गए थे सशक्त किनारे
तहख़ानों के देख अंधेरे
शरमाए थे खिले उजियारे
आज़ादी की ताज़ी साँस को
फेंफड़े अपने खंगाले थे
गमले में बरगद लगाने के,
उन्होंने खूब शौक़ पाले थे
सहमी-सहमी भरी आँखों में
साहसी कुछ सपने बैठे थे
हौसले मौन खड़े घूर रहे
टूटे दुखी मन पर रूठे थे
दिलासा के पैरों में अब तक
छल के दुखते हुए छाले थे
गमले में बरगद लगाने के,
उन्होंने खूब शौक़ पाले थे
बरगद की जड़ें जब फैलीं तो,
गमले को तोड़ कर निकल गईं
चिड़िया फुदकती हुई उड़ गई
मछलियां सागर में फिसल गईं
खुद को भगवान समझे बैठे
कुछ इंसाँ अजीब निराले थे
गमले में बरगद लगाने के,
उन्होंने खूब शौक़ पाले थे