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गरमी / गिरिजा अरोड़ा
Kavita Kosh से
सूरज ने बरसाई आग
धरती जलने लगी
हवा हो गई रूखी
रुख वो बदलने लगी
प्यासे हुए प्राण
त्राहि त्राहि कर उठे
पाखी से ह्रदय
ओट वृक्ष की चले
स्वेद कण बन झर पड़े
आशा, स्वप्न, तेज, खुशी
सम्मानित डालियाँ भी
रसहीन दिखने लगी
हो गए धातु सरीखे
देह और दिल तभी
दूरी बढ़ती निरंतर
तापमान के बढ़ते ही
बूंद की सामर्थ्य, उस समय
बचा दे घरौंदे कई
उतर के कभी अंबर से
और आँखों से कभी